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गुरुवार, 2 मई 2013

युवा जोश !

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लिओनार्दो दा विंची

लिओनार्दो दा विंची (Leonardo da Vinci, 1452-1519) इटलीवासी, महान् चित्रकार, मूर्तिकार, वास्तुशिल्पी, संगीतज्ञ, कुशल यांत्रिक, इंजीनियर तथा वैज्ञानिक था।

जीवनी
'लिओनार्दो दा विंची का जन्म इटली के फ्लोरेंस प्रदेश के विंचि नामक ग्राम में हुआ था। इस ग्राम के नाम पर इनके कुल का नाम पड़ा। ये अवैध पुत्र थे। शारीरिक सुंदरता तथा स्फूर्ति के साथ साथ इनमें स्वभाव की मोहकता, व्यवहारकुशलता तथा बौद्धिक विषयों में प्रवीणता के गुण थे।
लेओनार्डो ने छोटी उम्र से ही विविध विषयों का अनुशीलन प्रारंभ किया, किंतु इनमें से संगीत, चित्रकारी और मूर्तिरचना प्रधान थे। इनके पिता ने इन्हें प्रसिद्ध चित्रकार, मूर्तिकार तथा स्वर्णकार, आँद्रेआ देल वेरॉक्यो (Andrea del Verrochio), के पास काम सीखने को बैठाया। यहाँ इन्होंने सात वर्ष व्यतीत किए, किंतु थोड़े ही समय में वे अपने गुरु से भी आगे बढ़ गए। सन् 1477 से सन् 1482 तक ये महाप्रभ लोरेंज़ो (Lorenzo the Magnificent) की छत्रच्छाया में रहकर कार्य करते रहे और तत्पश्चात् मिलैन के रईस लुडोविको स्फॉत्र्सा (Ludovico Sforza) की सेवा में चले गए, जहाँ इनके विविध कार्यों में सैनिक इंजीनियरी तथा दरबार के भव्य समारोहों के संगठन भी सम्मिलित थे। यहाँ रहते हुए इन्होंने दो महान् कलाकृतियाँ, लुडोविको के पिता की घुड़सवार मूर्ति तथा "अंतिम व्यालू" (Last Supper) शीर्षक चित्र, पूरी कीं। लुडोविको के पतन के पश्चात्, सन् 1499 में, लेआनार्डो मिलैन छोड़कर फ्लोरेंस वापस आ गए, जहाँ इन्होंने अन्य कृतियों के सिवाय मॉना लिसा (Mona Lisa) शीर्षक चित्र तैयार किया। यह चित्र तथा ""अंतिम व्यालू"" नामक चित्र, इनकी महत्तम कृतियाँ मानी जाती हैं। सन् 1508 में फिर मिलैन वापस आकर, वहाँ के फरासीसी शासक के अधीन ये चित्रकारी, इंजीनियरी तथा दरबारी समारोहों की सज़ावट और आयोजनों की देखभाल का अपना पुराना काम करते रहे। सन् 1513 से 1516 तक रोम में रहने के पश्चात् इन्हें फ्रांस के राजा, फ्रैंसिस प्रथम, अपने देश ले गए और अंब्वाज़ (Amboise) के कोट में इनके रहने का प्रबंध कर दिया। यहीं इनकी मृत्यु हुई।
कार्य
लेओनार्डो तथा यूरोप के नवजागरणकाल के अन्य कलाकारों में यह अंतर है कि विंचि ने प्राचीन काल की कलाकृतियों की मुख्यत: नकल करने में समय नहीं बिताया। वे स्वभावत: प्रकृति के अनन्य अध्येता थे। जीवन के इनके चित्रों में अभिव्यंजक निरूपण की सूक्ष्म यथार्थता के सहित सजीव गति तथा रेखाओं के प्रवाह का ऐसा सम्मिलन पाया जाता है जैसा इसके पूर्व के किसी चित्रकार में नहीं मिलता। ये पहले चित्रकार थे, जिन्होंने इस बात का अनुभव किया कि संसार के दृश्यों में प्रकाश और छाया का विलास ही सबसे अधिक प्रभावशाली तथा सुंदर होता है। इसलिए इन्होंने रंग और रेखाओं के साथ साथ इसे भी उचित महत्व दिया। असाधारण दृश्यों और रूपों ने इन्हें सदैव आकर्षित किया और इनकी स्मृति में स्थान पाया। ये वस्तुओं के गूढ़ नियमों और करणों के अन्वेषण में लगे रहते थे। प्रकाश, छाया तथा संदर्श, प्रकाशिकी, नेत्र-क्रिया-विज्ञान, शरीररचना, पेशियों की गति, वनस्पतियों की संरचना तथा वृद्धि, पानी की शक्ति तथा व्यवहार, इन सबके नियमों तथा अन्य अनेक इसी प्रकार की बातों की खाज में इनका अतृप्त मन लगा रहता था।
लेओनार्डो डा विंचि के प्रामाणिक चित्रों में बहुत थोड़े बच पाए हैं। कई कृतियों की प्रामाणिकता के संबंध में संदेह है, किंतु ऊपर वर्णित दो चित्रों के सिवाय इनके अन्य चौदह चित्र प्रामाणिक माने जाते हैं, जो यूरोप के पृथक् पृथक् देशों की राष्ट्रीय संपत्ति समझे जाते हैं। धन में इनके वर्तमान चित्रों के मूल्य का अनुमान संभव नहीं है।
इनकी बनाई कोई मूर्ति अब पाई नहीं जाती, किंतु कहा जाता है कि फ्लोरेंस की बैप्टिस्टरी (गिर्जाघर का एक भाग) के उत्तरी द्वार पर बनी तीन मूर्तियाँ, बुडापेस्ट के संग्रहालय में रखी काँसे की घुड़सवार मूर्ति तथा पहले बर्लिन के संग्रहालय में सुरक्षित, मोम से निर्मित, फ्लोरा की आवक्ष प्रतिमा लेओनार्डो के निर्देशन में निर्मित हुई थी। कुछ अन्य मूर्तियों के संबंध में भी ऐसा ही विचार है, पर निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता।
ऐसा जान पड़ता है कि लेओनार्डो चित्रकारी, वास्तुकला, शरीरसंरचना, ज्योतिष, प्रकाशिकी, जल-गति-विज्ञान तथा यांत्रिकी पर अलग अलग ग्रंथ लिखना चाहते थे, पर यह काम पूरा नहीं हुआ। इन विषयों पर इनके केवल अपूर्ण लेख या टिप्पणियाँ प्राप्य हैं। लेओनार्डों ने इतने अधिक वैज्ञानिक विषयों पर विचार किया था तथा इनमें से अनेक पर इनकी टिप्पणियाँ इतनी विस्तृत हैं कि उनका वर्णन यहाँ संभव नहीं है। ऊपर लिखे विषयों के सिवाय वनस्पति विज्ञान, प्राणिविज्ञान, शरीरक्रिया विज्ञान, भौतिकी, भौमिकी, प्राकृतिक भूगोल, जलवायुविज्ञान, वैमानिकी आदि अनेक वैज्ञानिक विषयों पर इन्होंने मौलिक तथा अंत:प्रवेशी विचार प्रकट किए हैं, गणित, यांत्रिकी तथा सैनिक इंजीनियरी के तो ये विद्वान् थे ही, आप दक्ष संगीतज्ञ भी थे।
लेओनार्डों को अपूर्व ईश्वरीय वरदान प्राप्त था। इनकी दृष्टि भी वस्तुओं को असाधारण रीति से ग्रहण करती थी। वे उन बातों को देख और अवधृत कर लेते थे जिनका मंदगति फोटोग्राफी के प्रचलन के पूर्व किसी को ज्ञान नहीं था। प्रक्षिप्त छाया के रंगों के संबंधों में वे जो कुछ लिख गए हैं, उनका 19वीं सदी के पूर्व किस ने विकास नहीं किया। उनके धार्मिक तथा नैतिक विपर्ययों के संबंध में भी कुछ कहा जाता है, किंतु असाधारण प्रतिभावान मनुष्यों को साधारण मनुष्यों के प्रतिमानों से नापना ठीक नहीं है।

अलेक्ज़ांडर ग्राहम बेल

अलेक्जेंडर ग्राहम बेल (Alexander Graham Bell) (3 मार्च, 1847 – 2 अगस्त, 1922) को पूरी दुनिया आमतौर पर टेलीफोन के आविष्कारक के रूप में ही ज्यादा जानती है। बहुत कम लोग ही यह जानते हैं कि ग्राहम बेल ने न केवल टेलीफोन, बल्कि कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में कई और भी उपयोगी आविष्कार किए हैं। ऑप्टिकल-फाइबर सिस्टम, फोटोफोन, बेल और डेसिबॅल यूनिट, मेटल-डिटेक्टर आदि के आविष्कार का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। ये सभी ऐसी तकनीक पर आधारित हैं, जिसके बिना संचार-क्रंति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
ग्राहम बेल का जन्म स्कॉटलैण्ड के एडिनबर्ग में ३ मार्च सन १८४७ को हुआ था।
विलक्षण प्रतिभा के धनी
ग्राहम बेल की विलक्षण प्रतिभा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे महज तेरह वर्ष के उम्र में ही ग्रेजुएट हो गए थे। यह भी बेहद आश्चर्य की बात है कि वे केवल सोलह साल की उम्र में एक बेहतरीन म्यूजिक टीचर के रूप में मशहूर हो गए थे।
मां के बधिरपन ने दिखाया रास्ता
अपंगता किसी भी व्यक्ति के लिए एक अभिशाप से कम नहीं होती, लेकिन ग्राहम बेल ने अपंगता को अभिशाप नहीं बनने दिया। दरअसल, ग्राहम बेल की मां बधिर थीं। मां के सुनने में असमर्थता से ग्राहम बेल काफी दुखी और निराश रहते थे, लेकिन अपनी निराशा को उन्होंने कभी अपनी सफलता की राह में रुकावट नहीं बनने दिया। उन्होंने अपनी निराशा को एक सकारात्मक मोड देना ही बेहतर समझा। यही कारण था कि वे ध्वनि विज्ञान की मदद से न सुन पाने में असमर्थ लोगों के लिए ऐसा यंत्र बनाने में कामयाब हुए, जो आज भी बधिर लोगों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है।
बधिरों से खास लगाव
अगर यह कहें कि ग्राहम बेल ने अपना पूरा जीवन बधिर लोगों के लिए कार्य करने में लगा दिया, तो शायद गलत नहीं होगा। उनकी मां तो बधिर थीं हीं, ग्राहम बेल की पत्नी और उनका एक खास दोस्त भी सुनने में असमर्थ था। चूंकि उन्होंने शुरू से ही ऐसे लोगों की तकलीफ को काफी करीब से महसूस किया था, इसलिए उनके जीवन की बेहतरी के लिए और क्या किया जाना चाहिए, इसे वे बेहतर ढंग से समझ सकते थे। हो सकता है कि शायद अपने जीवन की इन्हीं खास परिस्थितियों की वजह से ग्राहम बेल टेलीफोन के आविष्कार में सफल हो पाए हों।
आविष्कारों के जनक
ग्राहम बेल बचपन से ही ध्वनि विज्ञान में गहरी दिलचस्पी रखते थे, इसलिए लगभग 23 साल की उम्र में ही उन्होंने एक ऐसा पियानो बनाया, जिसकी मधुर आवाज काफी दूर तक सुनी जा सकती थी। कुछ समय तक वे स्पीच टेक्नोलॉजी विषय के टीचर भी रहे थे। इस दौरान भी उन्होंने अपना प्रयास जारी रखा और एक ऐसे यंत्र को बनाने में सफल हुए, जो न केवल म्यूजिकॅल नोट्स को भेजने में सक्षम था, बल्कि आर्टिकुलेट स्पीच भी दे सकता था। यही टेलीफोन का सबसे पुराना मॉडल था।

चार्ल्स द्वितीय

चार्ल्स द्वितीय (29 मई 1630 - 6 फरवरी 1685) स्कॉट्स, इंग्लैण्ड और आयरलैण्ड का राजा था 30 जनवरी 1649 (वैधानिक रूप से) या 29 मई 1660 (वास्तविक रूप से) से अपनी मृत्यु तक। अंग्रेजी गृहयुद्ध के पश्चात इनके पिता चार्ल्स प्रथम को प्राणदण्ड दे दिया गया था, जिसके बाद कुछ साल तक राजशाही समाप्त करके इंग्लैण्ड, स्कॉटलैण्ड और आयरलैण्ड में आलिवर क्रामवेल के नेतृत्व में गणतन्त्र की स्थापना हुई। क्रामवेल की मृत्यु के शीघ्र बाद ही राजशाही फ़िर से शुरू हुई और चार्ल्स द्वितीय का राज्याभिषेक हुआ। इनके राजा बनने की ठीक तारीख़ तय करना मुश्किल है, क्योंकि उस समय ब्रिटेन में काफ़ी राजनैतिक उथल-पुथल हो रही थी। चार्ल्स प्रथम की मृत्यु के पश्चात चार्ल्स द्वितीय ने अधिकांश समय फ्रांस में निर्वासन में काटा, जब तक राजशाही फ़िर से शुरू नहीं हुई।

अपने पिता की तरह ही इंग्लैण्ड की संसद के साथ चार्ल्स द्वितीय के सम्बन्ध काफ़ी मुश्किल रहे। राज के अन्तिम वर्षों में इन्हें संसद को हटाकर खुद राज करने में सफलता मिली। लेकिन पिता की तरह इन्हें लोगों के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा, जिसका प्रमुख कारण है कि इन्होंने जनता पर कोई नए कर नहीं लगाए। यूरोप में हो रहे कैथोलिक और प्रोटेस्टैण्ट संप्रदायों के बीच हो रहे संघर्ष की वजह से चार्ल्स द्वितीय का अधिकतर समय घरेलू और विदेशी नीतियों को संभालने में लगा। साथ ही इनके दरबार में कूटनीति और साजिशों का बोलबाला रहा। इसी समय इंग्लैण्ड में विग और टोरी राजनैतिक पार्टियाँ पहली बार उभर कर सामने आईं।

चार्ल्स द्वितीय को मैरी मोनार्क (अंग्रेजी: Merry Monarch, खुशदिल राजा) कहा जाता है, क्योंकि इनके दरबार में ज़िन्दादिली और इच्छावाद का बोलबाला था। इनकी बहुत सी अवैधानिक संताने हुईं लेकिन कोई वैधानिक सन्तान नहीं हुई। ये ललित कलाओं के संरक्षक थे, जिनको प्रोटेक्टेरेट में लगे निषेध के बाद इनके दरबार में बहुत प्रोत्साहन मिला। चार्ल्स द्वितीय ने मृत्यु से पहले रोमन कैथोलिक सम्प्रदाय को अपना लिया था।

वीरप्पन

वीरप्पन के नाम से प्रसिद्ध कूज मुनिस्वामी वीरप्पन (1952-2004) दक्षिण भारत का कुख्यात चन्दन तस्कर था । चन्दन की तस्करी के अतिरिक्त वह हाथीदांत की तस्करी, हाथियों के अवैध शिकार, पुलिस तथा वन्य अधिकारियों की हत्या व अपहरण के कई मामलों का भी अभियुक्त था । कहा जाता है कि सरकार ने कुल 20 करोड़ रुपये उसे पकड़ने के लिए खर्च किए (प्रतिवर्ष लगभग 2 करोड़) ।

बाल्यकालकूज मुनिस्वामी वीरप्पा गौड़न उर्फ़ वीरप्पन का जन्म 18 जनवरी 1952 को प्रातः 8 बजकर 17 मिनट पर गोपीनाथम नामक ग्राम में एक चरवाहा परिवार में हुआ था । बचपन के दिनों वह मोलाकाई नाम से भी जाना जाता था । 18 वर्ष की उम्र में वह एक अवैध रूप से शिकार करने वाले गिरोह का सदस्य बन गया । अगले कुछ सालों में उसने अपने एक प्रतिद्वंदी गिरोह का खात्मा किया और सम्पूर्ण जंगल का कारोबार उसके हाथों में आ गया । उसने चंदन तथा हाथीदांत से पैसा कमाया ।

वीरप्पन के कृत्य
कहा जाता है कि उसने कुल 2000 हाथियों को मार डाला, पर उसकी जीवनी लिखने वाले सुनाद रघुराम के अनुसार उसने 200 से अधिक हाथियों का शिकार नहीं किया होगा ।
उसका 40 लोगों का गिरोह, अपहरण तथा हत्या की वारदात करते रहते थै जिनके शिकार प्रायः पुलिसकर्मी या वन्य अधिकारी होते थे । वीरप्पन को लगता था कि उसकी बहन मारी तथा उसके भाई अर्जुनन की हत्या के लिए पुलिस जिम्मेवार थी ।
वीरप्पन प्रसिद्ध व्यक्तियों की हत्या तथा अपहरण के बल पर अपनी मांग रखने के लिए भी कुख्यात था । 1987 में उसने एक वन्य अधिकारी की हत्या कर दी । 10 नवंबर 1991 को उसने एक आई एफ एस ऑफिसर पी श्रीनिवास को अपने चंगुल में फंसा कर उसकी निर्मम हत्या कर दी । इसके अतिरिक्त 14 अगस्त 1992 को मीन्यन (कोलेगल तालुक) के पास हरिकृष्ण (आईपीएस) तथा शकील अहमद नामक दो वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों समेत कई पुलिसकर्मियों की हत्या तब कर दी जब वे एक छापा डालने जा रहे थे ।

आसपास
अपने गांव गोपीनाथम में उसकी छवि रॉबिन हुड की तरह थी । गांव के निवासी उसके लिएएक छत्र की तरह काम करते थे तथा उसे पुलिस की गतिविधियों के बारे में सूचनाएं दिया करते थे । वे उसके गिरोह को भोजन तथा वस्त्र भी मुहैया कराते थे । ऐसा कहा जाता है कि लोग ऐसा वीरप्पन से डरकर करते थे । वीरप्पन ने गांववालों को कभी-कभार पैसे से मदद इसलिए की कि वो उसे पुलिस की गिरफ्त में आने से बचा सकें । उसने उन ग्रामीणों को क्रूरता से मार डाला जो पुलिस को उसके बारे में सूचनाएं दिया करते थे ।
उसे 1986 में एक बार पकड़ा गया था पर वह भाग निकलने में सफल रहा । वन्य जीवन पर पत्रकारिता करने वाले फोटोग्राफर कृपाकर, जिसे उसने एक बार अपहृत किया था, कहते हैं कि उसने अपने भागने के लिए पुलिस को करीब एक लाख रूपयों की रिश्वत दी थी ।

व्यक्तिगत जीवन
उसने एक चरवाहा परिवार की कन्या, मुत्थुलक्षमी से 1991 में शादी की । उसकी तीन बेटियां थीं - युवरानी, प्रभा तथा तथाकथित रूप से एक और जिसकी उसने गला घोंट कर हत्या कर दी । वीरप्पन ने कर विभाग के कैंटीन(सेंट्रल एक्साईज़ कैंटीन) में भी काम किया था ।
वीरप्पन को वन्य जीवन की अच्छी कलाकारी आती थी और वो कई पक्षियों की आवाज निकाल लेता था । इसने उसे कई बार गिरफ्त में आने से बचाया । ऐसा भी कहा जाता था कि उसने अंग्रेज़ी की फिल्म द गॉडफ़ादर कोई 100 बार देखी है । उसे कर्नाटक संगीत काफी प्रिय था और वो एक धार्मिक आदमी था तथा प्रतिदिन प्रार्थना करता था । उसने सरकार से कई बार सम्पर्क किया और क्षमादान की मांग की । उसकी ईच्छा थी कि वो एक अनाथाश्रम खोले तथा राजनीति से जुड़े (फूलन देवी से प्रेरित होकर)। उसे अपनी लम्बी घनी मूंछे बहुत पसन्द थीं । वह माँ काली का बहुत भक्त था और कहा जाता है कि उसने एक काली मंदिर भी बनवाया था ।

विशेष कार्य बल
1990 में कर्नाटक सरकार ने उसे पकड़ने के लिए एक विशेष पुलिस दस्ते का गठन किया । जल्द ही पुलिसवालों ने उसके कई आदमियों को पकड़ लिया । फरवरी, 1992 में पुलिस ने उसके प्रमुख सैन्य सहयोगी गुरुनाथन को पकड़ लिया । इसके कुछ महीनों के बाद वीरप्पन ने चामाराजानगर जिला के कोलेगल तालुक के एक पुलिस थाने पर छापा मारकर कई लोगों की हत्या कर दी और हथियार तथा गोली बारूद लूटकर ले गया । 1993 में पुलिस ने उसकी पत्नी मुत्थुलक्ष्मी को गिरफ्तार कर लिया । अपने नवजात शिशु के रोने तथा चिल्लाने से वो पुलिस की गिरफ्त में ना आ जाए इसके लिए उसने अपनी संतान की गला घोंट कर हत्या कर दी ।

मृत्यु
18 अक्टूबर 2004 को उसे मार दिया गया । उसके मरने पर भी कई तरह के विवाद हैं ।उसका प्रशिक्षित कुत्ता तथा बंदर उसके मरने के बाद प्रकाश में आए । उसका कुत्ता मथाई कई मामलों में गवाह की भूमिका निभा रहा है । वह भौंक कर अपनी भावना व्यक्त करता है ।

वीरप्पन की पत्नी का कहना है कि उसे कुछ दिन पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया था । वीरप्पन ने कई बार चेतावनी दी थी कि यदि उसे पुलिस के खिलाफ किसी मामले में फंसाया जाता है तो वो हर एक पुलिसवाले की ईमानदारी पर उंगली उठा सकता है, इस कारण से उसकी हत्या कर दी गई ।

रोचक तथ्य
वीरप्पन वन्नियार जाति का था । पट्टलि मक्कल काच्चि (पीएमके) के कई लोग जो कि उस जाति के थे, ने अपना झंडा उसकी मृत्यु पर आधा ही चढ़ाया था ।
तमिल की साप्ताहिक पत्रिका नक्कीरण के आर गोपाल ने जब वीरप्पन का साक्षात्कार लिया था तो वो एक स्टार(प्रसिद्ध हस्ती) बन गए थे ।
वीरप्पन की मौत के बाद रामगोपाल वर्मा की फिल्म लेट्स कैच वीरप्पन (चलो वीरप्पन को पकड़ें) का नाम बदलकर लेट्स किल वीरप्पन(चलो वीरप्पन को मार गिराएं) कर दिया गया ।
हिन्दी, तमिल तथा कन्नड़ की कई फिल्मों के किरदार वीरप्पन पर आधारित हैं । हिन्दी में सरफ़रोश (वीरन), जंगल (दुर्गा सिंह) कन्नड़ मे वीरप्पन तथा तमिल में कैप्टन प्रभाकरन काफी प्रसिद्ध फिल्मों में से हैं ।
सुनाद रघुराम ने वीरप्पन की जीवनी पर एक किताब लिखी है - Veerappan: India's Most Wanted Man

नास्त्रेदमस: वर्तमान और भविष्य

बहुत कम लोग जानते होंगे कि नास्त्रेदमस केवल भविष्यवक्ता ही नही, डॉक्टर और शिक्षक भी थे। भविष्य के गर्भ मे छिपी बातों को हजारों साल पहले घोषणा करने वाले मशहूर भविष्यवक्ता नास्त्रेदमस का जन्म १४ दिसंबर १५०३ को फ्रांस के एक छोटे से गांव सेंट रेमी मे हुआ। उनका नाम मिशेल दि नास्त्रेदमस था बचपन से ही उनकी अध्ययन मे खास दिलचस्पि रही और उन्होनें लैटिन, यूनानी और हीब्रू भाषाओं के अलावा गणित, शरीर विज्ञान एवं ज्योतिष शास्त्र जैसे गूढ विषयों पर विशेष महारत हासिल कर ली।
नास्त्रेदमस ने किशोरावस्था से ही भविष्यवाणियां करना शुरू कर दी थी। ज्योतिष मे उनकी बढती दिलचस्पी ने माता-पिता को चिंता मे डाल दिया क्योंकि उस समय कट्टरपंथी ईसाई इस विद्या को अच्छी नजर से नही देखते थे। ज्योतिष से उनका ध्यान हटाने के लिए उन्हे चिकित्सा विज्ञान पढने मांट पेलियर भेज दिया गया जिसके बाद तीन वर्ष की पढाई पूरी कर नास्त्रेदमस चिकित्सक बन गए।
२३ अक्टूबर १५२९ को उन्होने मांट पोलियर से ही डॉक्टरेट की उपाधि ली और उसी विश्वविद्यालय मे शिक्षक बन गए। पहली पत्नी के देहांत के बाद १५४७ मे यूरोप जाकर उन्होने ऐन से दूसरी शादी कर ली। इस दौरान उन्होनें भविष्यवक्ता के रूप मे खास नाम कमाया। एक घटना तो ऐसी थी जिससे पूरे यूरोप महाद्वीप मे फैल गई। एक बार वह अपने मित्र के साथ इटली की सडकों पर टहल रहे थे, उन्होनें भीड में एक युवक को देखा और जब वह युवक पास आया तो उसे आदर से सिर झुकाकर नमस्कार किया। मित्र ने आश्चर्यचकित होते हुए इसका कारण पुछा तो उन्होने कहा कि यह व्यक्ति आगे जाकर पोप का आसन ग्रहण करेगा। वास्तव मे वह व्यक्ति फेलिस पेरेती था जिसने १५८५ मे पोप चुना गया।
नास्त्रेदमस की भविष्यवाणियां की ख्याति सुन फ्रांस की महारानी कैथरीन ने अपने बच्चों का भविष्य जानने की इच्छा जाहिर की। नास्त्रेदमस अपनी इच्छा से यह जान चुके थे कि महारानी के दोनो बच्चे अल्पायु मे ही पुरे हो जाएंगे, लेकिन सच कहने की हिम्मत नही हो पायी और उन्होने अपनी बात को प्रतीकात्मक छंदो मे पेश किया। इसक प्रकार वह अपनी बात भी कह गए और महारानी के मन को कोई चोट भी नहीं पहुंची। तभी से नास्त्रेदमस ने यह तय कर लिया कि वे अपनी भविष्यवाणीयां को इसी तरह छंदो मे ही व्यक्त करेंगें।
१५५० के बाद नास्त्रेदमस ने चिकित्सक के पेशे को छोड अपना पूरा ध्यान ज्योतिष विद्या की साधना पर लगा दिया। उसी साल से अन्होंने अपना वार्षिक पंचाग भी निकालना शुरू कर दिया। उसमें ग्रहों की स्थिति, मौसम और फसलों आदि के बारे मे पूर्वानुमान होते थे। उनमें से ज्यादातर सत्य सावित हुई। नास्त्रेदमस ज्योतिष के साथ ही जादू से जुडी किताबों मे घंटो डूबे रहते थे। नास्त्रेदमस ने १५५५ में भविष्यवाणियों से संबंधित अपने पहले ग्रंथ सेंचुरी के प्रथम भाग का लेखन पूरा किया, जो सबसे पहले फ्रेंच और बाद मे अंग्रेजी, जर्मन, इतालवी, रोमन, ग्रीक भाषाओं मे प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक ने फ्रांस मे इतना तहलका मचाया कि यह उस समय महंगी होने के बाद भी हाथों-हाथ विक गई। इस किताब के कई छंदो मे प्रथम विश्व युद्ध, नेपोलियन, हिटलर और कैनेडी आदि से संबंद्ध घटनाएं स्पष्ट रूप से देची जा सकती है।व्याख्याकारों ने नास्त्रेदमस के अनेक छंदो मे तीसरे विश्वयुद्ध का पूर्वानुमान और दुनिया के विनाश के संकेत को भी समझ लेने मे सफलता प्राप्त कर ली।
नास्त्रेदमस के जीवन के अंतिम साल बहुत कष्ट से गुजरे। फ्रांस का न्याय विभाग उनके विरूद्ध यह जांच कर रहा था कि क्या वह वास्ताव में जादू-टोने का सहारा लेते थे। यदि यह आरोप सिद्ध हो जाता, तो वे दंड के अधिकारी हो जाते। लेकिन जांच का निष्कर्ष यह निकला कि वेकोई जादूगर नही बल्कि ज्योतिष विद्या में पारंगत है। उन्हीं दिनों जलोदर रोग से ग्रस्त हो गए। शरीर मे एक फोडा हो गया जो लाख उपाचार के बाद भी ठीक नही हो पाया। उन्हे अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था, इसलिए उन्होने १७ जून १५६६ को अपनी वसीयत तैयार करवाई। एक जुलाई को पादरी को बुलाकर अपने अंतिम संस्कार के निर्देश दिए। २ जूलाई १५६६ को इस महान भविष्यवक्ता का निधन हो गया। अपनी मृत्यु की तिथि और समय की भविष्यवाणी वे पहले ही कर चूके थे।
नास्त्रेदमस ने अपने संबंध मे जो कुछ गिनी-चुनी भविष्यवाणियां की थी, उनमें से एक यह भी थी कि उनकी मौत के २२५ साल बाद कुद समाजविरोधी तत्व उनकी कब्र खोदेंगे और उनके अवशेषों को निकालने का प्रयास करेंगे लेकिन तुरंत ही उनकी मौत हो जाएगी। वास्तव मे ऐसी ही हुआ। फ्रांसिसी क्रांति के बाद १७९१ में तीन लोगों ने नास्त्रेदमस की कब्र को खोदा, जिनकी तुरंत मौत हो गयी।

बराक ओबामा


4 अगस्त, 1961 होनोलूलू में जन्में ओबामा किन्याई मूल के अश्वेत पिता व अमरीकी मूल की माता के संतान हैं। उनका अधिकांश प्रारंभिक जीवन अमरीका के हवाई प्रांत में बीता। 6 से 10 वर्ष का आयुकाल उन्होंने जकार्ता, इंडोनेशिया में अपनी माता और इंडोनेशियाई सौतेले पिता के संग बिताया। बाल्यकाल में उन्हें बैरी नाम से पुकारा जाता था। बाद में वे होनोलूलू वापस आकर अपने ननिहाल में ही रहने लगे। 1995 में उनकी माता का कैंसर से देहांत हो गया। ओबामा की पत्नी का नाम मिशेल है। उनका विवाह 1992 में हुआ जिससे उनकी दो पुत्रिया हैं, 9 वर्षीय मालिया तथा 6 वर्षीय साशा।
ओबामा हार्वड लॉ स्कूल से 1991 में स्नातक बनें, जहाँ वे हार्वड लॉ रिव्यू के पहले अफ्रीकी अमरीकी अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने दो लोकप्रिय पुस्तकें भी लिखी हैं, पहली पुस्तक ड्रीम्स फ्रॉम माई फादरः अ
स्टोरी आफ रेस एंड इन्हेरिटेंस का प्रकाशन लॉ स्कूल से स्नातक बनने के कुछ दिन बाद ही हुआ था। इस पुस्तक में उनके होनोलूलू व जकार्ता में बीते बालपन, लॉस एंजलिस व न्यूयॉर्क में व्यतीत कालेज जीवन तथा 80 के दशक में शिकागो शहर में सामुदायिक आयोजक के रूप में उनकी नौकरी के दिनों के संस्मरण हैं। पुस्तक पर आधारित आडियो बुक को 2006 में प्रतिष्ठित ग्रैमी अवार्ड से भी नवाजा गया है। उनकी दूसरी पुस्तक द ओडेसिटी आफ होपः थॉट्स आन रिक्लेमिंग द अमेरिकन ड्रीम अक्टुबर 2006 में प्रकाशित हुई, मध्यावधि चुनाव के महज़ तीन हफ्ते पहले। यह किताब शीघ्र ही बेस्टसेलर सूची में शामिल हो गई। पुस्तक पर आधारित आडियो बुक को 2008 में प्रतिष्ठित ग्रैमी अवार्ड से भी नवाजा गया है। शिकागो ट्रिब्यून के मुताबिक पुस्तक के प्रचार के दौरान लोगों से मिलने के प्रभाव ने ही ओबामा को राष्ट्रपति पद के चुनाव में उतरने का हौसला दिया।

बराक हुसैन ओबामा अमरीका के 44वें निर्वाचित और प्रथम अश्वेत (अफ्रीकी अमरीकन) राष्ट्रपति हैं। वे 20 जनवरी, 2009 को राष्ट्रपति पद की शपथ लेंगे। ओबामा इलिनॉय प्रांत से कनिष्ठ सेनेटर तथा 2008 में अमरीका के राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रैटिक पार्टी के उम्मीदवार थे।

5 जून, 2008 को यह लगभग तय हो गया कि ओबामा की उम्मीदवारी के समर्थन में उनकी डेमोक्रेटिक प्रतिद्वंद्वी तथा पूर्व प्रथम महिला हिलेरी क्लिंटन अपनी दावेदारी छोड़ देंगी। अमेरीकी इतिहास में ओबामा न केवल पाँचवें अफ्रीकी अमरीकन सेनेटर हैं बल्कि लोकप्रिय वोट से चुने जाने वाले तीसरे और सेनेट में नियुक्त एकमात्र अफ्रीकी अमरीकन सेनेटर भी हैं।
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भारत के लिए ओबामा की जीत के मायने
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस
नई दिल्ली, बुधवार, नवंबर 5, 2008
भारत की खुशी के कारण:
स्वाभाविक सहयोगी : ओबामा ने कहा है कि भारत के साथ रणनीतिक भागीदारी कायम करना उनकी पहली प्राथमिकता है और वह 21 वीं सदी में भारत को अमेरिका के स्वाभाविक सहयोगी के रूप में देखते हैं।
आतंकवाद और पाकिस्तान :
ओबामा का पाकिस्तान में आतंकवाद और अल कायदा के अड्डों को समाप्त करने और अफगानिस्तान में स्थिरता लाने पर विशेष ध्यान देना। अफगानिस्तान को सहायता बढ़ाने की योजना।
इराक और मुस्लिम जगत :
केवल 18 महीने में इराक से सभी सेनाओं की वापसी का ओबामा का वादा। अमेरिका के प्रति मुस्लिम जगत में घृणा का यह सबसे बड़ा कारण है। इससे अमेरिका के साथ संबंधों के बावजूद भारत को मध्य-पूर्व में अपनी स्थिति बेहतर रखने में आसानी होगी।
अर्थव्यवस्था :
ओबामा वित्तीय संस्थाओं पर अधिक नियंत्रण लगाने के पक्षधर। आव्रजन कानूनों में सुधार एवं एच1बी वीजा कार्यक्रम के पक्षधर।
भारत के लिए चिंता के विषय
सीटीबीटी : परमाणु अप्रसार के प्रबल पक्षधर ओबामा भारत को व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य करने का प्रयास कर सकते हैं। वह भारत पर और प्रतिबंध लगाने के लिए नई बहस छेड़ सकते हैं।कश्मीर : कश्मीर में शांति रक्षक की भूमिका निभाने का प्रयास कर सकते हैं। भारत के कश्मीर को द्विपक्षीय समस्या मानने और इसमें किसी तीसरी ताकत के हस्तक्षेप नहीं होने के दृष्टिकोण के यह खिलाफ है।आउटसोर्सिंग : वैश्विक वित्तीय संकट के कारण ओबामा संरक्षणवादी रुख अपना सकते हैं। ओबामा नए रोजगार पैदा करने के लिए अमेरिकी कंपनियों को करों में राहत देने का वादा कर सकते हैं।

सद्दाम हुसैन



दो दशकों तक इराक़ के राष्ट्रपति रहे सद्दाम हुसैन का जन्म वर्ष 1937 के अप्रैल महीने में बग़दाद के उत्तर में स्थित तिकरित के एक गाँव में हुआ।
वर्ष 1957 में युवा हुसैन ने बाथ पार्टी की सदस्यता ली जो अरब राष्ट्रवाद के एक समाजवादी रूप का अभियान चला रही थी.
ब्रिटेन ने तत्कालीन राष्ट्रसंघ से अनुमति लेने के बाद 1920 से 1932 तक इराक़ पर शासन किया था और इसके बाद के वर्षों में भी इराक़ पर उनका राजनीतिक और सैनिक प्रभाव क़ायम रहा.
स्वाभाविक तौर पर देश में पश्चिम के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त विरोध की भावना घर कर चुकी थी.
आख़िरकार वर्ष 1962 में इराक़ में विद्रोह हुआ और ब्रिगेडियर अब्दुल करीम क़ासिम ने ब्रिटेन के समर्थन से चल रही राजशाही को हटाकर सत्ता अपने क़ब्ज़े में कर ली.
क़ासिम सरकार के ख़िलाफ़ भी बग़ावत हुई और ब्रिगेडियर क़ासिम को मारने का प्रयास किया गया जो नाक़ाम रहा।
सद्दाम हुसैन भी इसमें शामिल थे और इस षडयंत्र के बाद उन्हें भागकर मिस्र में शरण लेनी पड़ी.
लेकिन वो फिर लौटे वर्ष 1963 में, जब बाथ पार्टी ने विद्रोह के बाद सत्ता हासिल कर ली.
कुछ ही महीनों में ब्रिगेडियर क़ासिम के सहयोगी कर्नल अब्द-अल-सलाम मोहम्मद आरिफ़ को बाथ पार्टी को गद्दी से हटाने में क़ामयाबी मिल गई.
एक बार फिर सद्दाम हुसैन सींखचों के पीछे डाल दिए गए.
फिर 1966 में वे जेल से भाग निकले और बाथ पार्टी के सहायक महासचिव बने.
सत्ता
1968 में फिर विद्रोह हुआ और इस बार 31 वर्षीय सद्दाम हुसैन ने जेनरल अहमद हसन अल बक्र के साथ मिलकर सत्ता पर क़ब्ज़ा किया.
दोनों ही तकरित के थे, रिश्तेदार थे और जल्दी ही दोनों बाथ पार्टी के सबसे प्रभावशाली नेता बन बैठे.
जनरल अल बक्र के नेतृत्व में सद्दाम हुसैन ने कई ऐसे क़दम उठाए जिनसे पश्चिमी जगत के माथे पर शिकन पैदा हो गई.
वर्ष 1972 में इराक़ ने तत्कालीन सोवियत संघ के साथ उस वक्त 15 वर्षों का सहयोग समझौता किया जब शीतयुद्ध अपनी चरम सीमा पर था.
इराक़ ने अपनी उन तेल कंपनियों का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया जो पश्चिमी देशों को तब तक काफ़ी सस्ती दरों पर तेल दे रही थीं.
वर्ष 1973 में आया तेल संकट और उस वक़्त जो भी फ़ायदा हुआ उसका निवेश देश के उद्योग, शिक्षा और स्वास्थ्य में किया गया.
जल्दी ही जीवन स्तर के मामले में इराक़ का स्थान अरब जगत में सबसे ऊपर के देशों में माना जाने लगा.
धीरे-धीरे सद्दाम हुसैन ने सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत की और अपने रिश्तेदारों तथा सहयोगियों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करते चले गए।
1978 में नया क़ानून बना और विपक्षी दलों की सदस्यता लेने का मतलब जान से हाथ धोना माना जाने लगा।
माना जाता है कि अगले ही साल यानी 1979 में, सद्दाम हुसैन ने ख़राब स्वास्थ्य के नाम पर जनरल बक्र को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर कर दिया और ख़ुद देश के राष्ट्रपति बन बैठे.
आरोप हैं कि सत्ता संभालते ही उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों को मारना शुरू कर दिया.
कुछ वर्ष पहले इस सिलसिले में एक बार किसी यूरोपीय पत्रकार ने सद्दाम हुसैन से पूछा कि इराक़ी सरकार के अपने विरोधियों को मारने की बात क्या सही है तो सद्दाम ने बिना विचलित हुए कहा था- "निश्चित रूप से."
सद्दाम हुसैन के शब्द थे- "आप क्या अपेक्षा करते हैं? जब वे आपकी सत्ता का विरोध कर रहे हों?"
इराक़-ईरान विवाद
सद्दाम अपनेआप को अरब देशों का सबसे प्रभावशाली प्रमुख समझने लगे थे.
उन्होंने वर्ष 1980 में नई इस्लामिक क्रांति के प्रभावों को कमज़ोर करने के लिए पश्चिमी ईरान की सीमाओं में अपनी सेना उतार दीं.
इसके बाद आठ वर्षों तक चले युद्ध में लाखों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी.
इस दौरान जुलाई, 1982 में सद्दाम हुसैन ने अपने ऊपर हुए एक आत्मघाती हमले के बाद शिया बाहुल्य दुजैल गाँव में 148 लोगों की हत्या करवा दी थी.
मानवाधिकार उल्लंघन के ऐसे कई मामलों के बावजूद अमरीका ने इन हमलों में सद्दाम का साथ दिया था.
हालांकि ईरान के साथ वर्ष 1988 में युद्धविराम घोषित हो गया पर सद्दाम ने अपने प्रभुत्व को बनाए रखने लिए अपनी ताकत को बढ़ाने के कामों को और तेज़ कर दिया.
उन्होंने लंबी दूरी की मिसाइलों, परमाणु, जैविक और रासायनिक हथियारों को विकसित करने का काम शुरू कर दिया.
खाड़ी युद्ध
ईरान के ख़िलाफ़ युद्ध का इराक़ की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा था। इससे उबरने के लिए उन्हें तेल के दामों को बढ़ाने की ज़रूरत महसूस हुई.
अगस्त, 1990 में इराक़ ने कुवैत को तेल के दामों को नीचे गिराने के लिए दोषी करार दिया जिसके बाद एक और युद्ध की शुरुआत हो गई.
इस दौरान अमरीका की ओर से इराक़ पर हुई बमबारी से इराक़ को काफ़ी नुकसान उठाना पड़ा.
जनवरी, 1991 में इस संघर्ष ने तेज़ी पकड़ी और इराक़ी सेना को कुवैत से पीछे हटने के लिए विवश होना पड़ा. इस संघर्ष में हज़ारों इराक़ी सैनिक मारे गए और पकड़े गए.
इराक़ के कई तेल के कुँओं में आग लगा दी गई जिसकी वजह से भारी आर्थिक और पारिस्थितिक नुकसान उठाना पड़ा.
इराक़ पर अमरीकी नेतृत्व वाले गठबंधन के मार्च 2003 में हमले के बाद से अब तक बहुत सी महत्वपूर्ण घटनाएँ हो चुकी हैं. यहाँ पेश है सद्दाम हुसैन का शासन समाप्त होने के बाद कुछ महत्वपूर्ण पड़ावों का ब्यौरा.
पर इसके बाद इराक़ की सामाजिक स्थितियाँ इतनी सामान्य नहीं रहीं और शिया समुदाय ने विद्रोह शुरू कर दिया.
शियाओं के इस विद्रोह को समर्थन देने की जगह पश्चिमी देश इनकी अनदेखी करते रहे और उनका दमन चालू रहा.
सत्ता परिवर्तन
इराक़ पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की ओर से कई आर्थिक प्रतिबंध लगे जिसकी वजह से इराक़ की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी.
वर्ष 2000 में अमरीका में जॉर्ज बुश की ताजपोशी ने सद्दाम सरकार पर दबाव और बढ़ा दिया।
इसके बाद अमरीका साथ तौर पर सत्ता परिवर्तन की बात कहने लगा. वर्ष 2002 में संयुक्त राष्ट्र के दल ने इराक़ का दौरा किया. इस दौरान इराक़ ने कई मिसाइलों को ख़त्म किया पर बुश की शंका कम नहीं हुई.
मार्च 2003 में अमरीका ने अपने कुछ सहयोगी देशों के साथ इराक़ पर हमला कर दिया. 09 अप्रैल 2003 को सद्दाम हुसैन की सरकार को गिरा दिया गया.
अमरीकी सेनाएँ राजधानी बग़दाद के केंद्रीय इलाक़ों की तरफ़ बढ़ती हैं जिसके बाद सद्दाम हुसैन सरकार का नियंत्रण राजधानी के ज़्यादातर इलाक़ों से ख़त्म हो जाता है.
सद्दाम हुसैन की एक मूर्ति को जब अमरीकी सैनिक तोड़ते हैं तो वहाँ मौजूद कुछ लोगों ने मूर्ति पर अपना ग़ुस्सा उतारा. अमरीकी सैनिकों ने इसे एक प्रतीकात्मक घटना बताया.
इसके बाद 13 दिसंबर, 2003 को सद्दाम हुसैन को पकड़ लिया गया. सद्दाम हुसैन को अमरीकी सैनिकों ने पकड़ा. वह तिकरित शहर के एक घर में छुपे हुए पाए गए और उन्होंने बिना किसी लड़ाई के ही समर्पण कर दिया।
इसके बाद से उनपर कई मामलों में मुक़दमा चलाया गया. दुजैल नरसंहार के अभियुक्त के रूप में सुनवाई के बाद सद्दाम हुसैन को पाँच नवंबर, 2006 को मौत की सज़ा सुना दी गई और दिसंबर में इराक़ की अपील सुनने वाली अदालत ने उनकी अपील ख़ारिज कर दी.

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