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मेरा संघर्ष हिटलर की आत्मक�%.
मेरा संघर्ष हिटलर की आत्मकथ�.
डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद.
अयोध्या विवाद का इतिहास.
युवा.
ब्राइन.
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सामना का पर्यावाची.
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विश्व की बड़ी घटनाएं .
अलकनंदा.
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लिओनार्दो दा विंची (Leonardo da Vinci, 1452-1519) इटलीवासी, महान्
चित्रकार, मूर्तिकार, वास्तुशिल्पी, संगीतज्ञ, कुशल यांत्रिक, इंजीनियर तथा
वैज्ञानिक था।
जीवनी
'लिओनार्दो दा विंची का
जन्म इटली के फ्लोरेंस प्रदेश के विंचि नामक ग्राम में हुआ था। इस ग्राम के
नाम पर इनके कुल का नाम पड़ा। ये अवैध पुत्र थे। शारीरिक सुंदरता तथा
स्फूर्ति के साथ साथ इनमें स्वभाव की मोहकता, व्यवहारकुशलता तथा बौद्धिक
विषयों में प्रवीणता के गुण थे।
लेओनार्डो ने छोटी उम्र से ही विविध
विषयों का अनुशीलन प्रारंभ किया, किंतु इनमें से संगीत, चित्रकारी और
मूर्तिरचना प्रधान थे। इनके पिता ने इन्हें प्रसिद्ध चित्रकार, मूर्तिकार
तथा स्वर्णकार, आँद्रेआ देल वेरॉक्यो (Andrea del Verrochio), के पास काम
सीखने को बैठाया। यहाँ इन्होंने सात वर्ष व्यतीत किए, किंतु थोड़े ही समय
में वे अपने गुरु से भी आगे बढ़ गए। सन् 1477 से सन् 1482 तक ये महाप्रभ
लोरेंज़ो (Lorenzo the Magnificent) की छत्रच्छाया में रहकर कार्य करते रहे
और तत्पश्चात् मिलैन के रईस लुडोविको स्फॉत्र्सा (Ludovico Sforza) की
सेवा में चले गए, जहाँ इनके विविध कार्यों में सैनिक इंजीनियरी तथा दरबार
के भव्य समारोहों के संगठन भी सम्मिलित थे। यहाँ रहते हुए इन्होंने दो
महान् कलाकृतियाँ, लुडोविको के पिता की घुड़सवार मूर्ति तथा "अंतिम व्यालू"
(Last Supper) शीर्षक चित्र, पूरी कीं। लुडोविको के पतन के पश्चात्, सन्
1499 में, लेआनार्डो मिलैन छोड़कर फ्लोरेंस वापस आ गए, जहाँ इन्होंने अन्य
कृतियों के सिवाय मॉना लिसा (Mona Lisa) शीर्षक चित्र तैयार किया। यह चित्र
तथा ""अंतिम व्यालू"" नामक चित्र, इनकी महत्तम कृतियाँ मानी जाती हैं। सन्
1508 में फिर मिलैन वापस आकर, वहाँ के फरासीसी शासक के अधीन ये चित्रकारी,
इंजीनियरी तथा दरबारी समारोहों की सज़ावट और आयोजनों की देखभाल का अपना
पुराना काम करते रहे। सन् 1513 से 1516 तक रोम में रहने के पश्चात् इन्हें
फ्रांस के राजा, फ्रैंसिस प्रथम, अपने देश ले गए और अंब्वाज़ (Amboise) के
कोट में इनके रहने का प्रबंध कर दिया। यहीं इनकी मृत्यु हुई।
कार्य
लेओनार्डो
तथा यूरोप के नवजागरणकाल के अन्य कलाकारों में यह अंतर है कि विंचि ने
प्राचीन काल की कलाकृतियों की मुख्यत: नकल करने में समय नहीं बिताया। वे
स्वभावत: प्रकृति के अनन्य अध्येता थे। जीवन के इनके चित्रों में अभिव्यंजक
निरूपण की सूक्ष्म यथार्थता के सहित सजीव गति तथा रेखाओं के प्रवाह का ऐसा
सम्मिलन पाया जाता है जैसा इसके पूर्व के किसी चित्रकार में नहीं मिलता।
ये पहले चित्रकार थे, जिन्होंने इस बात का अनुभव किया कि संसार के दृश्यों
में प्रकाश और छाया का विलास ही सबसे अधिक प्रभावशाली तथा सुंदर होता है।
इसलिए इन्होंने रंग और रेखाओं के साथ साथ इसे भी उचित महत्व दिया। असाधारण
दृश्यों और रूपों ने इन्हें सदैव आकर्षित किया और इनकी स्मृति में स्थान
पाया। ये वस्तुओं के गूढ़ नियमों और करणों के अन्वेषण में लगे रहते थे।
प्रकाश, छाया तथा संदर्श, प्रकाशिकी, नेत्र-क्रिया-विज्ञान, शरीररचना,
पेशियों की गति, वनस्पतियों की संरचना तथा वृद्धि, पानी की शक्ति तथा
व्यवहार, इन सबके नियमों तथा अन्य अनेक इसी प्रकार की बातों की खाज में
इनका अतृप्त मन लगा रहता था।
लेओनार्डो डा विंचि के प्रामाणिक चित्रों
में बहुत थोड़े बच पाए हैं। कई कृतियों की प्रामाणिकता के संबंध में संदेह
है, किंतु ऊपर वर्णित दो चित्रों के सिवाय इनके अन्य चौदह चित्र प्रामाणिक
माने जाते हैं, जो यूरोप के पृथक् पृथक् देशों की राष्ट्रीय संपत्ति समझे
जाते हैं। धन में इनके वर्तमान चित्रों के मूल्य का अनुमान संभव नहीं है।
इनकी
बनाई कोई मूर्ति अब पाई नहीं जाती, किंतु कहा जाता है कि फ्लोरेंस की
बैप्टिस्टरी (गिर्जाघर का एक भाग) के उत्तरी द्वार पर बनी तीन मूर्तियाँ,
बुडापेस्ट के संग्रहालय में रखी काँसे की घुड़सवार मूर्ति तथा पहले बर्लिन
के संग्रहालय में सुरक्षित, मोम से निर्मित, फ्लोरा की आवक्ष प्रतिमा
लेओनार्डो के निर्देशन में निर्मित हुई थी। कुछ अन्य मूर्तियों के संबंध
में भी ऐसा ही विचार है, पर निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता।
ऐसा
जान पड़ता है कि लेओनार्डो चित्रकारी, वास्तुकला, शरीरसंरचना, ज्योतिष,
प्रकाशिकी, जल-गति-विज्ञान तथा यांत्रिकी पर अलग अलग ग्रंथ लिखना चाहते थे,
पर यह काम पूरा नहीं हुआ। इन विषयों पर इनके केवल अपूर्ण लेख या
टिप्पणियाँ प्राप्य हैं। लेओनार्डों ने इतने अधिक वैज्ञानिक विषयों पर
विचार किया था तथा इनमें से अनेक पर इनकी टिप्पणियाँ इतनी विस्तृत हैं कि
उनका वर्णन यहाँ संभव नहीं है। ऊपर लिखे विषयों के सिवाय वनस्पति विज्ञान,
प्राणिविज्ञान, शरीरक्रिया विज्ञान, भौतिकी, भौमिकी, प्राकृतिक भूगोल,
जलवायुविज्ञान, वैमानिकी आदि अनेक वैज्ञानिक विषयों पर इन्होंने मौलिक तथा
अंत:प्रवेशी विचार प्रकट किए हैं, गणित, यांत्रिकी तथा सैनिक इंजीनियरी के
तो ये विद्वान् थे ही, आप दक्ष संगीतज्ञ भी थे।
लेओनार्डों को अपूर्व
ईश्वरीय वरदान प्राप्त था। इनकी दृष्टि भी वस्तुओं को असाधारण रीति से
ग्रहण करती थी। वे उन बातों को देख और अवधृत कर लेते थे जिनका मंदगति
फोटोग्राफी के प्रचलन के पूर्व किसी को ज्ञान नहीं था। प्रक्षिप्त छाया के
रंगों के संबंधों में वे जो कुछ लिख गए हैं, उनका 19वीं सदी के पूर्व किस
ने विकास नहीं किया। उनके धार्मिक तथा नैतिक विपर्ययों के संबंध में भी कुछ
कहा जाता है, किंतु असाधारण प्रतिभावान मनुष्यों को साधारण मनुष्यों के
प्रतिमानों से नापना ठीक नहीं है।
भारत के लिए ओबामा की जीत के मायने
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस
नई दिल्ली, बुधवार, नवंबर 5, 2008
भारत की खुशी के कारण:
स्वाभाविक
सहयोगी : ओबामा ने कहा है कि भारत के साथ रणनीतिक भागीदारी कायम करना उनकी
पहली प्राथमिकता है और वह 21 वीं सदी में भारत को अमेरिका के स्वाभाविक
सहयोगी के रूप में देखते हैं।
आतंकवाद और पाकिस्तान :
ओबामा
का पाकिस्तान में आतंकवाद और अल कायदा के अड्डों को समाप्त करने और
अफगानिस्तान में स्थिरता लाने पर विशेष ध्यान देना। अफगानिस्तान को सहायता
बढ़ाने की योजना।
इराक और मुस्लिम जगत :
केवल
18 महीने में इराक से सभी सेनाओं की वापसी का ओबामा का वादा। अमेरिका के
प्रति मुस्लिम जगत में घृणा का यह सबसे बड़ा कारण है। इससे अमेरिका के साथ
संबंधों के बावजूद भारत को मध्य-पूर्व में अपनी स्थिति बेहतर रखने में
आसानी होगी।
अर्थव्यवस्था :
ओबामा वित्तीय संस्थाओं पर अधिक नियंत्रण लगाने के पक्षधर। आव्रजन कानूनों में सुधार एवं एच1बी वीजा कार्यक्रम के पक्षधर।
भारत के लिए चिंता के विषय
सीटीबीटी
: परमाणु अप्रसार के प्रबल पक्षधर ओबामा भारत को व्यापक परमाणु परीक्षण
प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य करने का प्रयास
कर सकते हैं। वह भारत पर और प्रतिबंध लगाने के लिए नई बहस छेड़ सकते
हैं।कश्मीर : कश्मीर में शांति रक्षक की भूमिका निभाने का प्रयास कर सकते
हैं। भारत के कश्मीर को द्विपक्षीय समस्या मानने और इसमें किसी तीसरी ताकत
के हस्तक्षेप नहीं होने के दृष्टिकोण के यह खिलाफ है।आउटसोर्सिंग : वैश्विक
वित्तीय संकट के कारण ओबामा संरक्षणवादी रुख अपना सकते हैं। ओबामा नए
रोजगार पैदा करने के लिए अमेरिकी कंपनियों को करों में राहत देने का वादा
कर सकते हैं।
दो
दशकों तक इराक़ के राष्ट्रपति रहे सद्दाम हुसैन का जन्म वर्ष 1937 के
अप्रैल महीने में बग़दाद के उत्तर में स्थित तिकरित के एक गाँव में हुआ।
वर्ष 1957 में युवा हुसैन ने बाथ पार्टी की सदस्यता ली जो अरब राष्ट्रवाद के एक समाजवादी रूप का अभियान चला रही थी.
ब्रिटेन
ने तत्कालीन राष्ट्रसंघ से अनुमति लेने के बाद 1920 से 1932 तक इराक़ पर
शासन किया था और इसके बाद के वर्षों में भी इराक़ पर उनका राजनीतिक और
सैनिक प्रभाव क़ायम रहा.
स्वाभाविक तौर पर देश में पश्चिम के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त विरोध की भावना घर कर चुकी थी.
आख़िरकार
वर्ष 1962 में इराक़ में विद्रोह हुआ और ब्रिगेडियर अब्दुल करीम क़ासिम ने
ब्रिटेन के समर्थन से चल रही राजशाही को हटाकर सत्ता अपने क़ब्ज़े में कर
ली.
क़ासिम सरकार के ख़िलाफ़ भी बग़ावत हुई और ब्रिगेडियर क़ासिम को मारने का प्रयास किया गया जो नाक़ाम रहा।
सद्दाम हुसैन भी इसमें शामिल थे और इस षडयंत्र के बाद उन्हें भागकर मिस्र में शरण लेनी पड़ी.
लेकिन वो फिर लौटे वर्ष 1963 में, जब बाथ पार्टी ने विद्रोह के बाद सत्ता हासिल कर ली.
कुछ
ही महीनों में ब्रिगेडियर क़ासिम के सहयोगी कर्नल अब्द-अल-सलाम मोहम्मद
आरिफ़ को बाथ पार्टी को गद्दी से हटाने में क़ामयाबी मिल गई.
एक बार फिर सद्दाम हुसैन सींखचों के पीछे डाल दिए गए.
फिर 1966 में वे जेल से भाग निकले और बाथ पार्टी के सहायक महासचिव बने.
सत्ता
1968 में फिर विद्रोह हुआ और इस बार 31 वर्षीय सद्दाम हुसैन ने जेनरल अहमद हसन अल बक्र के साथ मिलकर सत्ता पर क़ब्ज़ा किया.
दोनों ही तकरित के थे, रिश्तेदार थे और जल्दी ही दोनों बाथ पार्टी के सबसे प्रभावशाली नेता बन बैठे.
जनरल अल बक्र के नेतृत्व में सद्दाम हुसैन ने कई ऐसे क़दम उठाए जिनसे पश्चिमी जगत के माथे पर शिकन पैदा हो गई.
वर्ष 1972 में इराक़ ने तत्कालीन सोवियत संघ के साथ उस वक्त 15 वर्षों का सहयोग समझौता किया जब शीतयुद्ध अपनी चरम सीमा पर था.
इराक़ ने अपनी उन तेल कंपनियों का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया जो पश्चिमी देशों को तब तक काफ़ी सस्ती दरों पर तेल दे रही थीं.
वर्ष 1973 में आया तेल संकट और उस वक़्त जो भी फ़ायदा हुआ उसका निवेश देश के उद्योग, शिक्षा और स्वास्थ्य में किया गया.
जल्दी ही जीवन स्तर के मामले में इराक़ का स्थान अरब जगत में सबसे ऊपर के देशों में माना जाने लगा.
धीरे-धीरे
सद्दाम हुसैन ने सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत की और अपने रिश्तेदारों तथा
सहयोगियों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करते चले गए।
1978 में नया क़ानून बना और विपक्षी दलों की सदस्यता लेने का मतलब जान से हाथ धोना माना जाने लगा।
माना
जाता है कि अगले ही साल यानी 1979 में, सद्दाम हुसैन ने ख़राब स्वास्थ्य
के नाम पर जनरल बक्र को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर कर दिया और ख़ुद देश के
राष्ट्रपति बन बैठे.
आरोप हैं कि सत्ता संभालते ही उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों को मारना शुरू कर दिया.
कुछ
वर्ष पहले इस सिलसिले में एक बार किसी यूरोपीय पत्रकार ने सद्दाम हुसैन से
पूछा कि इराक़ी सरकार के अपने विरोधियों को मारने की बात क्या सही है तो
सद्दाम ने बिना विचलित हुए कहा था- "निश्चित रूप से."
सद्दाम हुसैन के शब्द थे- "आप क्या अपेक्षा करते हैं? जब वे आपकी सत्ता का विरोध कर रहे हों?"
इराक़-ईरान विवाद
सद्दाम अपनेआप को अरब देशों का सबसे प्रभावशाली प्रमुख समझने लगे थे.
उन्होंने वर्ष 1980 में नई इस्लामिक क्रांति के प्रभावों को कमज़ोर करने के लिए पश्चिमी ईरान की सीमाओं में अपनी सेना उतार दीं.
इसके बाद आठ वर्षों तक चले युद्ध में लाखों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी.
इस
दौरान जुलाई, 1982 में सद्दाम हुसैन ने अपने ऊपर हुए एक आत्मघाती हमले के
बाद शिया बाहुल्य दुजैल गाँव में 148 लोगों की हत्या करवा दी थी.
मानवाधिकार उल्लंघन के ऐसे कई मामलों के बावजूद अमरीका ने इन हमलों में सद्दाम का साथ दिया था.
हालांकि
ईरान के साथ वर्ष 1988 में युद्धविराम घोषित हो गया पर सद्दाम ने अपने
प्रभुत्व को बनाए रखने लिए अपनी ताकत को बढ़ाने के कामों को और तेज़ कर
दिया.
उन्होंने लंबी दूरी की मिसाइलों, परमाणु, जैविक और रासायनिक हथियारों को विकसित करने का काम शुरू कर दिया.
खाड़ी युद्ध
ईरान
के ख़िलाफ़ युद्ध का इराक़ की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा था।
इससे उबरने के लिए उन्हें तेल के दामों को बढ़ाने की ज़रूरत महसूस हुई.
अगस्त, 1990 में इराक़ ने कुवैत को तेल के दामों को नीचे गिराने के लिए दोषी करार दिया जिसके बाद एक और युद्ध की शुरुआत हो गई.
इस दौरान अमरीका की ओर से इराक़ पर हुई बमबारी से इराक़ को काफ़ी नुकसान उठाना पड़ा.
जनवरी,
1991 में इस संघर्ष ने तेज़ी पकड़ी और इराक़ी सेना को कुवैत से पीछे हटने
के लिए विवश होना पड़ा. इस संघर्ष में हज़ारों इराक़ी सैनिक मारे गए और
पकड़े गए.
इराक़ के कई तेल के कुँओं में आग लगा दी गई जिसकी वजह से भारी आर्थिक और पारिस्थितिक नुकसान उठाना पड़ा.
इराक़
पर अमरीकी नेतृत्व वाले गठबंधन के मार्च 2003 में हमले के बाद से अब तक
बहुत सी महत्वपूर्ण घटनाएँ हो चुकी हैं. यहाँ पेश है सद्दाम हुसैन का शासन
समाप्त होने के बाद कुछ महत्वपूर्ण पड़ावों का ब्यौरा.
पर इसके बाद इराक़ की सामाजिक स्थितियाँ इतनी सामान्य नहीं रहीं और शिया समुदाय ने विद्रोह शुरू कर दिया.
शियाओं के इस विद्रोह को समर्थन देने की जगह पश्चिमी देश इनकी अनदेखी करते रहे और उनका दमन चालू रहा.
सत्ता परिवर्तन
इराक़ पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की ओर से कई आर्थिक प्रतिबंध लगे जिसकी वजह से इराक़ की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी.
वर्ष 2000 में अमरीका में जॉर्ज बुश की ताजपोशी ने सद्दाम सरकार पर दबाव और बढ़ा दिया।
इसके
बाद अमरीका साथ तौर पर सत्ता परिवर्तन की बात कहने लगा. वर्ष 2002 में
संयुक्त राष्ट्र के दल ने इराक़ का दौरा किया. इस दौरान इराक़ ने कई
मिसाइलों को ख़त्म किया पर बुश की शंका कम नहीं हुई.
मार्च 2003 में
अमरीका ने अपने कुछ सहयोगी देशों के साथ इराक़ पर हमला कर दिया. 09 अप्रैल
2003 को सद्दाम हुसैन की सरकार को गिरा दिया गया.
अमरीकी सेनाएँ राजधानी
बग़दाद के केंद्रीय इलाक़ों की तरफ़ बढ़ती हैं जिसके बाद सद्दाम हुसैन
सरकार का नियंत्रण राजधानी के ज़्यादातर इलाक़ों से ख़त्म हो जाता है.
सद्दाम
हुसैन की एक मूर्ति को जब अमरीकी सैनिक तोड़ते हैं तो वहाँ मौजूद कुछ
लोगों ने मूर्ति पर अपना ग़ुस्सा उतारा. अमरीकी सैनिकों ने इसे एक
प्रतीकात्मक घटना बताया.
इसके बाद 13 दिसंबर, 2003 को सद्दाम हुसैन को
पकड़ लिया गया. सद्दाम हुसैन को अमरीकी सैनिकों ने पकड़ा. वह तिकरित शहर के
एक घर में छुपे हुए पाए गए और उन्होंने बिना किसी लड़ाई के ही समर्पण कर
दिया।
इसके बाद से उनपर कई मामलों में
मुक़दमा चलाया गया. दुजैल नरसंहार के अभियुक्त के रूप में सुनवाई के बाद
सद्दाम हुसैन को पाँच नवंबर, 2006 को मौत की सज़ा सुना दी गई और दिसंबर में
इराक़ की अपील सुनने वाली अदालत ने उनकी अपील ख़ारिज कर दी.