" विकारों का निर्मूलन "
मनुष्य क्रोध, नफरत, ईर्ष्या और द्वेष करता है और सोचता है कि इससे दूसरे का अहित हो जाए मगर इससे दूसरों का नहीं अपितु उसके स्वयं का ही अहित होने वाला है। क्रोध, नफरत, इर्ष्या जीवन में विष के समान हैं। यदि इन सभी विषों का पान आप कर रहे हैं तो अहित किसी और का कैसे हो सकता है..?
जिस प्रकार से जहर को खा लेने पर वह स्वयं के लिए घातक होता है, उसी प्रकार से आपका क्रोध, आपकी नफरत, आपकी ईर्ष्या और आपका द्वेष भी एक धीमा जहर है। आंतरिक विकार मनुष्य द्वारा अपने ही मार्ग में खोदे गये उस कूप के समान हैं , जिसमें देर - सबेर उसका गिरना अवश्यंभावी हो जाता है। जीवन के समस्त आंतरिक विकारों के समूल नाश के लिए केवल एक मात्र संजीवनी बूटी है
अमिय मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू।।
सद्गुरु की शरण ही वो संजीवनी बूटी है , जो सदग्रंथ और सत्संग का आश्रय दिलाकर हमारे समस्त आंतरिक विकारों का समूल नाश करते हुए हमें सदमार्ग की ओर निरंतर गति कराते हुए उस परम सत्य तक ले जाती है।